एक रात को स्टेशन पे खड़ा एक शख्श,
बुझे कदमों से वापस हो चला घर की ओर,
बा-उम्मीद कई दिनों से,
बस इन्तेज़ार ही करता था बरबस,
लखनऊ मेल में जा रही थी मन्ज़िल उसकी,
दो चार कदम ही बढ़े थे बस,
कि एक सन्देसा आया,
और मानो गाड़ी वापस हो चली जैसे,
उस शोर-गुल और भीड़ में भी,
मौसिकी का आलम सा हो गया था,
इतनी ज़ोर से धड़का उसका दिल,
कि सुन सकते थे सब लोग धड़कन उसकी,
9 दिसम्बर की उस सर्द रात में,
मन का सावन कुछ यों झूम के बरसा,
सारी कायनात उजली हो गयी जैसे,
स्टेशन से घर का रस्ता बहुत खूबसूरत हो गया था जैसे,
रस्ते भर वो मन्ज़िल उसके साथ थी,
गाड़ी पर पीछे बैठे हुए,
रख कर उसके कंधे पे हाथ मानो,
उसके कानोँ में बार बार फ़ुसफ़ुसा रही हो जैसे,
....कि मैं तुम्हारी हूँ......सिर्फ़ तुम्हारी
.
ये सभी रचनाएं मेरे अत्यंत करीब हैं, कलम से कल्पना नही सीख पाया हूँ अभी, जो कुछ भी लिखा है, सब आप बीती ही है,
Thursday, October 28, 2010
Wednesday, October 27, 2010
आज भी
गूंजती है हँसी तुम्हारी इस घर में आज भी,
वो पुराने शहर वाली पाज़ेब खनकती है आज भी,
तुम्हारी शाल की गर्माहट मुझे सुलाती है आज भी,
नम है माथा तुम्हारे बोसे से आज भी,
भोर में अलसाई आँखें तुम्हें खोजती हैं आज भी,
याद करके यकायक मुस्कुरा देता हूँ आज भी,
वो तुम्हारा काजल लगाना याद आता है आज भी,
यूँ अदा से सर झुका के रिझाना सताता है आज भी,
कलेवा पे भाग के मिलना याद है आज भी,
अधूरे घर की छत पे बैठ प्यार जताना याद है आज भी,
तुम्हारे पत्तों कि निशां फ़र्श पे हैं आज भी,
तुम्हारे झूले वाली बालकनी मुन्तज़िर है आज भी,
कुछ फ़ासले हो गयें हैं शायद पर साथ छूटा नहीं है आज भी,
मोहब्बत है तुमको भी मैं जानता हूँ आज भी,
अकेले में बैठ मुझे याद करती होगी आज भी,
महसूस कर मेरे छुअन का अहसास लजाती होगी आज भी,
आती हो मेरे ख्वाबों में रोज़ तुम आज भी,
मेरे जीने का मकसद बताती हो आज भी,
कभी तो मेहरबाँ होगी ये ज़ीस्त मुझ पर,
एक पल में हज़ार मौतें मैं मरता हूँ आज भी......
वो पुराने शहर वाली पाज़ेब खनकती है आज भी,
तुम्हारी शाल की गर्माहट मुझे सुलाती है आज भी,
नम है माथा तुम्हारे बोसे से आज भी,
भोर में अलसाई आँखें तुम्हें खोजती हैं आज भी,
याद करके यकायक मुस्कुरा देता हूँ आज भी,
वो तुम्हारा काजल लगाना याद आता है आज भी,
यूँ अदा से सर झुका के रिझाना सताता है आज भी,
कलेवा पे भाग के मिलना याद है आज भी,
अधूरे घर की छत पे बैठ प्यार जताना याद है आज भी,
तुम्हारे पत्तों कि निशां फ़र्श पे हैं आज भी,
तुम्हारे झूले वाली बालकनी मुन्तज़िर है आज भी,
कुछ फ़ासले हो गयें हैं शायद पर साथ छूटा नहीं है आज भी,
मोहब्बत है तुमको भी मैं जानता हूँ आज भी,
अकेले में बैठ मुझे याद करती होगी आज भी,
महसूस कर मेरे छुअन का अहसास लजाती होगी आज भी,
आती हो मेरे ख्वाबों में रोज़ तुम आज भी,
मेरे जीने का मकसद बताती हो आज भी,
कभी तो मेहरबाँ होगी ये ज़ीस्त मुझ पर,
एक पल में हज़ार मौतें मैं मरता हूँ आज भी......
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तुम्हारे लिये.....
Tuesday, October 26, 2010
रात और शाम
कान्धे पे लेके तेरी फ़ुरकत का बोझा,
दबे पांव ड्योढ़ी को लांघ कर,
अपने कमरे में घुसा,
दबे पांव इसलिये,
के कल की सोयी हुई शाम उठ ना जाये कहीं,
बहुत चुभती है सीने में,
.......वो कल की शाम।
पर इतनी कच्ची नींद सोयी थी,
कि मेरी धड़कन की आहट से ही उठ गयी,
और बस,
इतना सताया कि आँख नम हो आयी,
साँस छोड़ कर गहरी सी,
भारी कदमों से,
बैग रखते हुए,
गुज़रा आईने के सामने से,
तो देखा,
तेरे माथे की बिन्दिया चिपकी थी वहीं,
नीलम सी चटख नीली,
और 'उस रात' ने आकर थाम लिया कुछ यूँ हाथ मेरा,
के टपकने से ठीक पहले मेरे अश्कों के माने बदल गये,
होंठ खुद ही मुसकुरा दिये,
रूठ के वो शाम फ़िर औंधे मुंह सो गयी,
और रात भर बहुत बातें की 'उस रात' से मैनें,
अब तो बस उस रात और शाम के बीच झूलता है दिन,
कभी तेरा वो खत पढ़ता हूँ,
और कभी देखता हूँ आईना,
कभी खुद को कोसता हूँ
कभी खुदा को,
तुझसे तो कभी कोई शिकवा था ही नहीं,
बस वो शाम,
हर रोज़ मेरे बिस्तर पे सोयी मिलती है,
और हर बार वो आईना मुझे देखता है......
दबे पांव ड्योढ़ी को लांघ कर,
अपने कमरे में घुसा,
दबे पांव इसलिये,
के कल की सोयी हुई शाम उठ ना जाये कहीं,
बहुत चुभती है सीने में,
.......वो कल की शाम।
पर इतनी कच्ची नींद सोयी थी,
कि मेरी धड़कन की आहट से ही उठ गयी,
और बस,
इतना सताया कि आँख नम हो आयी,
साँस छोड़ कर गहरी सी,
भारी कदमों से,
बैग रखते हुए,
गुज़रा आईने के सामने से,
तो देखा,
तेरे माथे की बिन्दिया चिपकी थी वहीं,
नीलम सी चटख नीली,
और 'उस रात' ने आकर थाम लिया कुछ यूँ हाथ मेरा,
के टपकने से ठीक पहले मेरे अश्कों के माने बदल गये,
होंठ खुद ही मुसकुरा दिये,
रूठ के वो शाम फ़िर औंधे मुंह सो गयी,
और रात भर बहुत बातें की 'उस रात' से मैनें,
अब तो बस उस रात और शाम के बीच झूलता है दिन,
कभी तेरा वो खत पढ़ता हूँ,
और कभी देखता हूँ आईना,
कभी खुद को कोसता हूँ
कभी खुदा को,
तुझसे तो कभी कोई शिकवा था ही नहीं,
बस वो शाम,
हर रोज़ मेरे बिस्तर पे सोयी मिलती है,
और हर बार वो आईना मुझे देखता है......
Monday, October 18, 2010
चिराग
उतरा जो इश्क का भूत तो लुटा कारवां देखो,
एक बुझे हुए आशिक की कब्र पे ये जलता हुआ चिराग देखो,
कहते हैं कोई दीवानी आके जला जाती है,
देखा नहीं आज तक किसी ने,
बड़ी रूहानी दीवानी है ?
अरे मूरख उठा के देख ज़रा नज़रें,
तेरी कब्र पे कोइ नहीं रोता है,
कम स कम एहसान तो मान उस बन्जारे का,
जो वहां सोता है,
उसकी सुलगती चिलम से थोड़ी रोशनी तो हो जाती है,
मुगालता ही सही,
मरने के बाद ही सही,
पर दुनिया तेरी मोहब्बत का नाम तो लेती है,
और क्या चाहता था तू सच्ची आशिकी से ?
..............जो ये झूठी रोशनी नहीं दे पाती है ?
एक बुझे हुए आशिक की कब्र पे ये जलता हुआ चिराग देखो,
कहते हैं कोई दीवानी आके जला जाती है,
देखा नहीं आज तक किसी ने,
बड़ी रूहानी दीवानी है ?
अरे मूरख उठा के देख ज़रा नज़रें,
तेरी कब्र पे कोइ नहीं रोता है,
कम स कम एहसान तो मान उस बन्जारे का,
जो वहां सोता है,
उसकी सुलगती चिलम से थोड़ी रोशनी तो हो जाती है,
मुगालता ही सही,
मरने के बाद ही सही,
पर दुनिया तेरी मोहब्बत का नाम तो लेती है,
और क्या चाहता था तू सच्ची आशिकी से ?
..............जो ये झूठी रोशनी नहीं दे पाती है ?
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..................बस लिख दिया
Monday, October 11, 2010
याद है
एक रोज़ कहीं जाने के लिये तैयार थीं तुम,
और तभी मेरी कमीज़ का एक बटन टूट गया,
याद नहीं उस कमीज़ का रंग भी मुझको,
पर उस टाँकें का निशान वहीं मेरे सीने पे ही छूट गया।
Thursday, September 30, 2010
अभी बाकी है
कई खुदा हैं मेरे,
पर कलमा तेरे नाम का अभी बाकी है,
इस बेफ़िक्री को ना सोचना मेरी बेवफ़ाई तुम,
बस समझ लो यूँ कि इन्तेहाँ अभी बाकी है,
सफ़ा जो पलट दिया तो हुई क्या बात ज़ालिम,
दास्तां-ए-मोहब्बत अभी बाकी है,
अमां हुई खतम बस स्याही है,
मेरी उन्गलियों में कुछ नज़्में अभी बाकी हैं,
बस मौजूं नहीं मिलता आज की रात कोई,
अन्दाज़-ए-बयां तो अभी बाकी है।
पर कलमा तेरे नाम का अभी बाकी है,
इस बेफ़िक्री को ना सोचना मेरी बेवफ़ाई तुम,
बस समझ लो यूँ कि इन्तेहाँ अभी बाकी है,
सफ़ा जो पलट दिया तो हुई क्या बात ज़ालिम,
दास्तां-ए-मोहब्बत अभी बाकी है,
अमां हुई खतम बस स्याही है,
मेरी उन्गलियों में कुछ नज़्में अभी बाकी हैं,
बस मौजूं नहीं मिलता आज की रात कोई,
अन्दाज़-ए-बयां तो अभी बाकी है।
Saturday, September 25, 2010
शिकायत
शिकायत है मुझे,
तुम्हारे ज़ुल्फ़ों में लगी,
उस नादान क्लिप से।
क्या तकदीर है हुज़ूर की,
जा बैठी है मेरे खुदा के माथे पर,
और उसपे अदा भी ऐसी,
खुद अपने ही हाथों से जो लगायी है तुमने।
यूं तो मेरी कोई खास रंज़िश नहीं है उससे,
पर रोज़ सवेरे जब तुम,
गुज़रती हो उस गुलमोहर के दरख्त के नीचे से,
और उड़ती हैं हौले से यूँ ज़ुल्फ़ें तुम्हारी,
एक हवा के झोंके से।
तुम्हारे रुखसारों पर,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का वो लम्स्
मैं महसूस कर पाता हूँ आज भी।
अरमां बहुत हैं मेरे भी,
के बढ़ा के हाथ रोक लूँ उन ज़ुल्फ़ों को,
के छू ना पायें तुम्हारे नाज़ुक गालों को।
पर क्या करूँ,
ये नाचीज़ क्लिप,
साथ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के,
बांधे डालती है मेरे अरमानों को भी।
हाँ मुझे शिकायत है,
तुम्हारी उस नादान क्लिप से ............
बहुत पहले लिखी थी ये कविता हमने, लड़कपन के दिनों में, आह! क्या हसीं दिन थे वो भी।
आज कुछेक बदलवों के साथ थोड़ी और सज गयी है।
तुम्हारे ज़ुल्फ़ों में लगी,
उस नादान क्लिप से।
क्या तकदीर है हुज़ूर की,
जा बैठी है मेरे खुदा के माथे पर,
और उसपे अदा भी ऐसी,
खुद अपने ही हाथों से जो लगायी है तुमने।
यूं तो मेरी कोई खास रंज़िश नहीं है उससे,
पर रोज़ सवेरे जब तुम,
गुज़रती हो उस गुलमोहर के दरख्त के नीचे से,
और उड़ती हैं हौले से यूँ ज़ुल्फ़ें तुम्हारी,
एक हवा के झोंके से।
तुम्हारे रुखसारों पर,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का वो लम्स्
मैं महसूस कर पाता हूँ आज भी।
अरमां बहुत हैं मेरे भी,
के बढ़ा के हाथ रोक लूँ उन ज़ुल्फ़ों को,
के छू ना पायें तुम्हारे नाज़ुक गालों को।
पर क्या करूँ,
ये नाचीज़ क्लिप,
साथ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के,
बांधे डालती है मेरे अरमानों को भी।
हाँ मुझे शिकायत है,
तुम्हारी उस नादान क्लिप से ............
बहुत पहले लिखी थी ये कविता हमने, लड़कपन के दिनों में, आह! क्या हसीं दिन थे वो भी।
आज कुछेक बदलवों के साथ थोड़ी और सज गयी है।
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days of yore.......
Tuesday, September 21, 2010
डोर
लगायी थी गिरह एक,
डोर के दो सिरे जोड़ने के लिये,
पर जुड़ तो कुछ भी ना सका,
ऐंठ के रह गये दोनो,
अलबत्ता ये गिरह बहुत खटकेगी अब ।
शायद दो टुकड़ों का ही मुकद्दर था डोर का,
मैं ही चला था खुदा बनने।
डोर के दो सिरे जोड़ने के लिये,
पर जुड़ तो कुछ भी ना सका,
ऐंठ के रह गये दोनो,
अलबत्ता ये गिरह बहुत खटकेगी अब ।
शायद दो टुकड़ों का ही मुकद्दर था डोर का,
मैं ही चला था खुदा बनने।
Saturday, September 18, 2010
तस्वीर
तुम्हारी एक तस्वीर देख के मन योँ इतराया,
के बस उड़ता-उड़ता फ़िरता है।
मुझसे पूछा धूमिल* की नज़रों ने,
है तो इक तस्वीर ही बन्धु,
बात तो'उनकी'आमद की होती,
ये कागज़ का इक टुकड़ा है।
प्रेम कवि हो लेश* मान्यवर,
ना मानो तो एक पुरज़ा है,
जो मानो तो 'उनका' मुखड़ा है।
मन सीली सी कुछ रातों में,
चाँद को तकते रहता था,
'उनकी' इस तस्वीर की बाबत,
अब सपने देखा करता है।
मिलने की'उनसे'आस का सपना,
'मिलन' से ज़्यादा मीठा है,
जल का असली स्वाद तो बन्धु,
दो दिन का प्यासा कहता है।
सावन के आने से पहले,
अकुल* मोर के मन से पूछो,
जब बादल ज़ोर गरजते हैं,
तब 'उसका' मन क्या करता है।
है तो इक तस्वीर ही प्यारे,
ये मैं भी खूब समझता हूँ,
नहीं फ़ासलों की मोहताज मोहब्बत,
इस कागज़ पे ही मरता हूँ।
*धूमिल : लवलेश मेरे एक परम् मित्र, सखा हैं, लेश जी जैसे 'उज्ज्वल ' कवि का उपनाम 'धूमिल' है, अब वो खुद ही जाने कि वो 'धूमिल' क्यों हैं, शायद श्री सुदामा पान्डेय 'धूमिल'जी के बड़े प्रशन्सक हैं।
*अकुल : एक काव्यात्मक स्वच्छन्दता का प्रतीक है, असल माने 'आकुल' या व्याकुल है।
*अकुल : एक काव्यात्मक स्वच्छन्दता का प्रतीक है, असल माने 'आकुल' या व्याकुल है।
Tuesday, September 14, 2010
यादें
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
इक बरफ़ीली सुबह का पाला,
नखलऊ की कम्बल ओढ़े है,
कुछ बेगम महल की यादें हैं,
औ कालेज के आंसू थोड़े हैं।
माँ से यूँ हंस कर शरमाना,
और प्यार का पहला लाल गुलाब,
छत पर जाके फ़ोन पे लड़ना,
दिखलाना शादी के ख्वाब।
चारबाग की चाय प्याली,
कैफ़े की काफ़ी भर याद,
झप्पी ट्रेन की खिड़की वाली,
ऐयरपोर्ट पर पहली रात।
मोबाइल पर नैन मटक्का,
जी मेल पर बीते रैन,
दो शहरों की प्रेम कहानी,
हर दम मिलने को बेचैन।
अब हो ब्याह तो बात बने,
ये मांग हमारी जारी है,
हमसे चबवाये लौह चने,
अब हालत भी बेचारी है।
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
इक बरफ़ीली सुबह का पाला,
नखलऊ की कम्बल ओढ़े है,
कुछ बेगम महल की यादें हैं,
औ कालेज के आंसू थोड़े हैं।
माँ से यूँ हंस कर शरमाना,
और प्यार का पहला लाल गुलाब,
छत पर जाके फ़ोन पे लड़ना,
दिखलाना शादी के ख्वाब।
चारबाग की चाय प्याली,
कैफ़े की काफ़ी भर याद,
झप्पी ट्रेन की खिड़की वाली,
ऐयरपोर्ट पर पहली रात।
मोबाइल पर नैन मटक्का,
जी मेल पर बीते रैन,
दो शहरों की प्रेम कहानी,
हर दम मिलने को बेचैन।
अब हो ब्याह तो बात बने,
ये मांग हमारी जारी है,
हमसे चबवाये लौह चने,
अब हालत भी बेचारी है।
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
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इसे लिख कर मज़ा आ गया..........
Saturday, September 11, 2010
बारिश
इस बार जाने बादलों में क्या होड़ लगी है,
बेइन्तेहां बरसते हैं,
मसरूफ़ियत की भी हद है भाई,
कहीं मन भी गीला नहीं हुआ,
और कहते हैं सूरत में तो बाढ़ ही आ गयी,
एक तो ये मौसम है,
और एक तुम हो,
एक अरसा हुआ सुने हुए,
एक झलक भी मयस्सर ना हुई तुम्हारी,
बस एक तस्वीर के सहारे,
सांस ले रहा हूं आज भी,
एक बार बाढ़ ही आ जाती तो क्या बात थी ........
Thursday, September 2, 2010
रात
ऐसा जान पड़ता था,
अब मन समझदार हो गया है शायद,
पर मारा है दस्तूर-ए-मोहब्ब्त का शायद,
गाहे बगाहे,
कई रातों को,
कोठरी में मेरी,
दरीचे के धुंधले कांच पे,
ओस गिर ही जाती है ।
वाह रे मालिक,
कभी एक रात खिसकती नहीं,
कभी उम्र शब में गुज़र जाती है ।
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Tuesday, August 31, 2010
......
इस जुस्तजू के आलम में
अकेला ही सैर पे निकल पड़ा हूँ,
तुम्हारी इस कश्मकश में,
कुछ मैं भी उलझ पड़ा हूँ,
भारी है सांसें कुछ,
कोरी सब दीवारें हैं,
आँखों में खामोशी कुछ,
पर कहनी काफ़ी बातें हैं,
ना-उम्मीद ये शाम हुई है,
कागज़ की कोई नाव हो जैसे,
कदम चले उस मोड़ की जानिब,
दिन में कोई ख्वाब हो जैसे,
रस्ते भर बस तुम ही तुम हो,
हर ओर तुम्हारी यादें है,
जैसे टूटा कांच हो कोई,
हर टुकड़े में आँखें हैं,
एक बार जो मुझसे कहते तुम,
रंग जाती सारी दीवारें,
मेरा हाथ पकड़ गर चलते तुम,
जी लेते हम लम्हे सारे,
जाने अब कब लौटूंगा मैं,
काफ़ी दूर निकल आया हूँ,
मन्ज़िल की कोई चाह नहीं,
इस सैर में थोड़ा जी आया हूं......................
सोच के बैठा हूं,
ये बेरुखी भी तुम्हारा कोई अन्दाज़-ए-मोहब्बत ही होगा शायद,
इसे कोई और नाम न दे सकूंगा
Thursday, August 19, 2010
ये शहर
ये शहर,
ये सड़क,
वो लोग,
वो मकान,
और रस्ते का वो पेड़,
कुछ भी नहीं बदला,
मेरी गाड़ी कि पहियों के निशान अभी भी हैं,
उन बीते दिनों का असर अभी भी सुर्ख ही है,
कल मैं शाम के साथ टहलने गया था,
अपनी कुछ पुरानी चीज़ें ढूंढने गया था,
काका की मीठी चाय,
और मन्दिर की वो बेन्च समेटने गया था,
एक पत्ते पे लिख कर नाम अपना,
उड़ा दिया सड़क पर बस यूं ही,
और समा गया इस शहर के ज़ेहन में,
इस खानाबदोश महौल में,
पता ही नहीं चला,
कब ये शहर घरोंदा हो गया था।
तब तक,
वो ऊपर वाली शाख अनायास ही,
पूछ बैठी,
'कहो यार! आज अकेले ही आये हो?'
और बस,
सब कुछ धीरे धीरे बदल गया जैसे,
जवाब में मैं धीरे से मुस्कुरा दिया,
कहा 'चलता हूँ अब, देर हो रही है'
वो शाख समझदार है,
'गुड लक' कहा मुझको,
कहा .....................................'फ़िर आना'
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.....back to my alma matter
Tuesday, July 13, 2010
अन्तरद्व्ंद
सम्भावनाओं के सागर में,
आशा की एक नाव है,
इस पार आकांक्षा है,
उस पार मात्र कल्पना,
आवेश की अदनी पतवार है,
कितने दूर.......?
कितने दिन.........?
बस यही अन्तरद्व्ंद है..........
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