Saturday, June 20, 2009

मिसरे की स्याही

कुछ इरादतन
कुछ इत्तेफ़ाकन लिखे,
पर बाखुदा,
बामोहब्बत लिखे।


अब इन नज़्मों के झरोंखों से,
तुमको देखा करता हूं,
हर इक नज़्म पलटता हूं,
हर बार मैं तुमको पढता हूं ।


इक फ़ूल सहेज के रखा है,
कुछ पन्नों के सीने में,
फ़ुरकत के कुछ पत्ते हैं,
और चांदी का एक सिक्का है।


इस बार कहीं इक पन्ने पर,
उस सुर्ख गुलाबी गुन्चे पर,
मेरे मिसरे की स्याही उतर गयी,
इक दाग है उसपे रत्ती भर। ।


मैं अब नज़्म अधूरी पढता हूं,
हर बार मैं तुमपे मरता हूँ,
और कागज़ के इस रिश्ते को,
मैं झुक कर सजदा करता हूं ।