Saturday, October 30, 2010

घर

प्यार की ईंट,
वादों का सीमेन्ट,
ख्वाबों के खिड़की ,
और कसमों की चौखट,

तुम्हारी रसोई,
मेरी छत,
तुम्हारा आंगन,
और 'हमारा' बरामदा..

अपने सपनों का महल,
आजकल अकेले ही निहारता हूँ,
पुरानी बातों की धूल, 
खुद ही बहारता हूँ, 
कभी सुफ़ैद उम्र का सहारा देखता हूँ,
कभी नन्हों की किलकारी सोचता हूँ,
पकड़ के हाथ तुम्हारा,
शाम की वो सैर सोचता हूँ,

इन सारी बातों की झांकी,
हर रोज़ दिखाई देती है, 
किरदार भी सब दिखते हैं,
पर जब मैं पलट के, 
मारे खुशी के बदहवास,   
'उसका' पहला कदम दिखाने को,
देता हूँ आवाज़  तुमको, 

तब इन दीवारों से टकरा कर,
एक दम तोड़ता सन्नाटा सुनाई देता है, 
ये घरोंदा,
बिन तुम्हारे कदमों के,
आज भी निस्पन्द खड़ा है,
हर रोज़ रात को,
सपने में मेरे,
दुलहन की माफ़िक सजता है,
होते ही सुबह,
कारवां उठ चुका होता है,

ऐसी है कहानी,
इस बेचारे घर की,
जो सिर्फ़ इन्तेज़ार कर सकता है,
जान तो कभी आयी ही नहीं,
कमबख्त मर भी नहीं सकता है.

Thursday, October 28, 2010

एक रात

एक रात को स्टेशन पे खड़ा एक शख्श,
बुझे कदमों से वापस हो चला घर की ओर,
बा-उम्मीद कई दिनों से,
बस इन्तेज़ार ही करता था बरबस,

लखनऊ मेल में जा रही थी मन्ज़िल उसकी,
दो चार कदम ही बढ़े थे बस,
कि एक सन्देसा आया,
और मानो गाड़ी वापस हो चली जैसे,

उस शोर-गुल और भीड़ में भी,
मौसिकी का आलम सा हो गया था,
इतनी ज़ोर से धड़का उसका दिल,
कि सुन सकते थे सब लोग धड़कन उसकी,

9 दिसम्बर की उस सर्द रात में,
मन का सावन कुछ यों झूम के बरसा,
सारी कायनात उजली हो गयी जैसे,
स्टेशन से घर का रस्ता बहुत खूबसूरत हो गया था जैसे,

रस्ते भर वो मन्ज़िल उसके साथ थी,
गाड़ी पर पीछे बैठे हुए,
रख कर उसके कंधे पे हाथ मानो,
उसके कानोँ में बार बार फ़ुसफ़ुसा रही हो जैसे,

....कि मैं तुम्हारी हूँ......सिर्फ़ तुम्हारी
.

Wednesday, October 27, 2010

आज भी

गूंजती है हँसी तुम्हारी इस घर में आज भी,
वो पुराने शहर वाली पाज़ेब खनकती है आज भी,

तुम्हारी शाल की गर्माहट मुझे सुलाती है आज भी,
नम है माथा तुम्हारे बोसे से आज भी,

भोर में अलसाई आँखें तुम्हें खोजती हैं आज भी,
याद करके यकायक मुस्कुरा देता हूँ आज भी,

वो तुम्हारा काजल लगाना याद आता है आज भी,
यूँ अदा से सर झुका के रिझाना सताता है आज भी,


कलेवा पे भाग के मिलना याद है आज भी,
अधूरे घर की छत पे बैठ प्यार जताना याद है आज भी,

तुम्हारे पत्तों कि निशां फ़र्श पे हैं आज भी,
तुम्हारे झूले वाली बालकनी मुन्तज़िर है आज भी,

कुछ फ़ासले हो गयें हैं शायद पर साथ छूटा नहीं है आज भी,
मोहब्बत है तुमको भी मैं जानता हूँ आज भी,

अकेले में बैठ मुझे याद करती होगी आज भी,
महसूस कर मेरे छुअन का अहसास लजाती होगी आज भी,

आती हो मेरे ख्वाबों में रोज़ तुम आज भी,
मेरे जीने का मकसद बताती हो आज भी,

कभी तो मेहरबाँ होगी ये ज़ीस्त मुझ पर,
एक पल में हज़ार मौतें मैं मरता हूँ आज भी......

Tuesday, October 26, 2010

रात और शाम

कान्धे पे लेके तेरी फ़ुरकत का बोझा,
दबे पांव ड्योढ़ी को लांघ कर,
अपने कमरे में घुसा,
दबे पांव इसलिये,
के कल की सोयी हुई शाम उठ ना जाये कहीं,
बहुत चुभती है सीने में,
.......वो कल की शाम।

पर इतनी कच्ची नींद सोयी थी,
कि मेरी धड़कन की आहट से ही उठ गयी,
और बस,
इतना सताया कि आँख नम हो आयी,

साँस छोड़ कर गहरी सी,
भारी कदमों से,
बैग रखते हुए,
गुज़रा आईने के सामने से,
तो देखा,
तेरे माथे की बिन्दिया चिपकी थी वहीं,
नीलम सी चटख नीली,

और 'उस रात' ने आकर थाम लिया कुछ यूँ हाथ मेरा,
के टपकने से ठीक पहले मेरे अश्कों के माने बदल गये,
होंठ खुद ही मुसकुरा दिये,
रूठ के वो शाम फ़िर औंधे मुंह सो गयी,
और रात भर बहुत बातें की 'उस रात' से मैनें,

अब तो बस उस रात और शाम के बीच झूलता है दिन,
कभी तेरा वो खत पढ़ता हूँ,
और कभी देखता हूँ आईना,
कभी खुद को कोसता हूँ
कभी खुदा को,

तुझसे तो कभी कोई शिकवा था ही नहीं,
बस वो शाम,
हर रोज़ मेरे बिस्तर पे सोयी मिलती है,
और हर बार वो आईना मुझे देखता है......

Monday, October 18, 2010

चिराग

उतरा जो इश्क का भूत तो लुटा कारवां देखो,
एक बुझे हुए आशिक की कब्र पे ये जलता हुआ चिराग देखो,
कहते हैं कोई दीवानी आके जला जाती है,
देखा नहीं आज तक किसी ने,
बड़ी रूहानी दीवानी है ?

अरे मूरख उठा के देख ज़रा नज़रें,
तेरी कब्र पे कोइ नहीं रोता है,
कम स कम एहसान तो मान उस बन्जारे का,
जो वहां सोता है,
उसकी सुलगती चिलम से थोड़ी रोशनी तो हो जाती है,
 
मुगालता ही सही,
मरने के बाद ही सही,
पर दुनिया तेरी मोहब्बत का नाम तो लेती है,
और क्या चाहता था तू सच्ची आशिकी से ?
 ..............जो ये झूठी रोशनी नहीं दे पाती है ?

Monday, October 11, 2010

याद है


एक रोज़ कहीं जाने के लिये तैयार थीं तुम, 
और तभी मेरी कमीज़ का एक बटन टूट गया, 
याद नहीं उस कमीज़ का रंग भी मुझको,
पर उस टाँकें का निशान वहीं मेरे सीने पे ही छूट गया।