Tuesday, August 31, 2010

......

इस जुस्तजू के आलम में
अकेला ही सैर पे निकल पड़ा हूँ,
तुम्हारी इस कश्मकश में,
कुछ मैं भी उलझ पड़ा हूँ,

भारी है सांसें कुछ,
कोरी सब दीवारें हैं,
आँखों में खामोशी कुछ,
पर कहनी काफ़ी बातें हैं,

ना-उम्मीद ये शाम हुई है,
कागज़ की कोई नाव हो जैसे,
कदम चले उस मोड़ की जानिब,
दिन में कोई ख्वाब हो जैसे,

रस्ते भर बस तुम ही तुम हो,
हर ओर तुम्हारी यादें है,
जैसे टूटा कांच हो कोई,
हर टुकड़े में आँखें हैं,

एक बार जो मुझसे कहते तुम,
रंग जाती सारी दीवारें,
मेरा हाथ पकड़ गर चलते तुम,
जी लेते हम लम्हे सारे,

जाने अब कब लौटूंगा मैं,
काफ़ी दूर निकल आया हूँ,
मन्ज़िल की कोई चाह नहीं,
इस सैर में थोड़ा जी आया हूं......................



सोच के बैठा हूं,
ये बेरुखी भी तुम्हारा कोई अन्दाज़-ए-मोहब्बत ही होगा शायद,
इसे कोई और नाम न दे सकूंगा

Thursday, August 19, 2010

ये शहर

ये शहर,
ये सड़क,
वो लोग,
वो मकान,
और रस्ते का वो पेड़,
कुछ भी नहीं बदला,

मेरी गाड़ी कि पहियों के निशान अभी भी हैं,
उन बीते दिनों का असर अभी भी सुर्ख ही है,
कल मैं शाम के साथ टहलने गया था,
अपनी कुछ पुरानी चीज़ें ढूंढने गया था,
काका की मीठी चाय,
और मन्दिर की वो बेन्च समेटने गया था,

एक पत्ते पे लिख कर नाम अपना,
उड़ा दिया सड़क पर बस यूं ही,
और समा गया इस शहर के ज़ेहन में,
इस खानाबदोश महौल में,
पता ही नहीं चला,
कब ये शहर घरोंदा हो गया था।


तब तक,
वो ऊपर वाली शाख अनायास ही,
पूछ बैठी,
'कहो यार! आज अकेले ही आये हो?'
और बस,
सब कुछ धीरे धीरे बदल गया जैसे,
जवाब में मैं धीरे से मुस्कुरा दिया,
कहा 'चलता हूँ अब, देर हो रही है'

वो शाख समझदार है,
'गुड लक' कहा मुझको,
कहा .....................................'फ़िर आना'