कई खुदा हैं मेरे,
पर कलमा तेरे नाम का अभी बाकी है,
इस बेफ़िक्री को ना सोचना मेरी बेवफ़ाई तुम,
बस समझ लो यूँ कि इन्तेहाँ अभी बाकी है,
सफ़ा जो पलट दिया तो हुई क्या बात ज़ालिम,
दास्तां-ए-मोहब्बत अभी बाकी है,
अमां हुई खतम बस स्याही है,
मेरी उन्गलियों में कुछ नज़्में अभी बाकी हैं,
बस मौजूं नहीं मिलता आज की रात कोई,
अन्दाज़-ए-बयां तो अभी बाकी है।
ये सभी रचनाएं मेरे अत्यंत करीब हैं, कलम से कल्पना नही सीख पाया हूँ अभी, जो कुछ भी लिखा है, सब आप बीती ही है,
Thursday, September 30, 2010
Saturday, September 25, 2010
शिकायत
शिकायत है मुझे,
तुम्हारे ज़ुल्फ़ों में लगी,
उस नादान क्लिप से।
क्या तकदीर है हुज़ूर की,
जा बैठी है मेरे खुदा के माथे पर,
और उसपे अदा भी ऐसी,
खुद अपने ही हाथों से जो लगायी है तुमने।
यूं तो मेरी कोई खास रंज़िश नहीं है उससे,
पर रोज़ सवेरे जब तुम,
गुज़रती हो उस गुलमोहर के दरख्त के नीचे से,
और उड़ती हैं हौले से यूँ ज़ुल्फ़ें तुम्हारी,
एक हवा के झोंके से।
तुम्हारे रुखसारों पर,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का वो लम्स्
मैं महसूस कर पाता हूँ आज भी।
अरमां बहुत हैं मेरे भी,
के बढ़ा के हाथ रोक लूँ उन ज़ुल्फ़ों को,
के छू ना पायें तुम्हारे नाज़ुक गालों को।
पर क्या करूँ,
ये नाचीज़ क्लिप,
साथ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के,
बांधे डालती है मेरे अरमानों को भी।
हाँ मुझे शिकायत है,
तुम्हारी उस नादान क्लिप से ............
बहुत पहले लिखी थी ये कविता हमने, लड़कपन के दिनों में, आह! क्या हसीं दिन थे वो भी।
आज कुछेक बदलवों के साथ थोड़ी और सज गयी है।
तुम्हारे ज़ुल्फ़ों में लगी,
उस नादान क्लिप से।
क्या तकदीर है हुज़ूर की,
जा बैठी है मेरे खुदा के माथे पर,
और उसपे अदा भी ऐसी,
खुद अपने ही हाथों से जो लगायी है तुमने।
यूं तो मेरी कोई खास रंज़िश नहीं है उससे,
पर रोज़ सवेरे जब तुम,
गुज़रती हो उस गुलमोहर के दरख्त के नीचे से,
और उड़ती हैं हौले से यूँ ज़ुल्फ़ें तुम्हारी,
एक हवा के झोंके से।
तुम्हारे रुखसारों पर,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का वो लम्स्
मैं महसूस कर पाता हूँ आज भी।
अरमां बहुत हैं मेरे भी,
के बढ़ा के हाथ रोक लूँ उन ज़ुल्फ़ों को,
के छू ना पायें तुम्हारे नाज़ुक गालों को।
पर क्या करूँ,
ये नाचीज़ क्लिप,
साथ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के,
बांधे डालती है मेरे अरमानों को भी।
हाँ मुझे शिकायत है,
तुम्हारी उस नादान क्लिप से ............
बहुत पहले लिखी थी ये कविता हमने, लड़कपन के दिनों में, आह! क्या हसीं दिन थे वो भी।
आज कुछेक बदलवों के साथ थोड़ी और सज गयी है।
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days of yore.......
Tuesday, September 21, 2010
डोर
लगायी थी गिरह एक,
डोर के दो सिरे जोड़ने के लिये,
पर जुड़ तो कुछ भी ना सका,
ऐंठ के रह गये दोनो,
अलबत्ता ये गिरह बहुत खटकेगी अब ।
शायद दो टुकड़ों का ही मुकद्दर था डोर का,
मैं ही चला था खुदा बनने।
डोर के दो सिरे जोड़ने के लिये,
पर जुड़ तो कुछ भी ना सका,
ऐंठ के रह गये दोनो,
अलबत्ता ये गिरह बहुत खटकेगी अब ।
शायद दो टुकड़ों का ही मुकद्दर था डोर का,
मैं ही चला था खुदा बनने।
Saturday, September 18, 2010
तस्वीर
तुम्हारी एक तस्वीर देख के मन योँ इतराया,
के बस उड़ता-उड़ता फ़िरता है।
मुझसे पूछा धूमिल* की नज़रों ने,
है तो इक तस्वीर ही बन्धु,
बात तो'उनकी'आमद की होती,
ये कागज़ का इक टुकड़ा है।
प्रेम कवि हो लेश* मान्यवर,
ना मानो तो एक पुरज़ा है,
जो मानो तो 'उनका' मुखड़ा है।
मन सीली सी कुछ रातों में,
चाँद को तकते रहता था,
'उनकी' इस तस्वीर की बाबत,
अब सपने देखा करता है।
मिलने की'उनसे'आस का सपना,
'मिलन' से ज़्यादा मीठा है,
जल का असली स्वाद तो बन्धु,
दो दिन का प्यासा कहता है।
सावन के आने से पहले,
अकुल* मोर के मन से पूछो,
जब बादल ज़ोर गरजते हैं,
तब 'उसका' मन क्या करता है।
है तो इक तस्वीर ही प्यारे,
ये मैं भी खूब समझता हूँ,
नहीं फ़ासलों की मोहताज मोहब्बत,
इस कागज़ पे ही मरता हूँ।
*धूमिल : लवलेश मेरे एक परम् मित्र, सखा हैं, लेश जी जैसे 'उज्ज्वल ' कवि का उपनाम 'धूमिल' है, अब वो खुद ही जाने कि वो 'धूमिल' क्यों हैं, शायद श्री सुदामा पान्डेय 'धूमिल'जी के बड़े प्रशन्सक हैं।
*अकुल : एक काव्यात्मक स्वच्छन्दता का प्रतीक है, असल माने 'आकुल' या व्याकुल है।
*अकुल : एक काव्यात्मक स्वच्छन्दता का प्रतीक है, असल माने 'आकुल' या व्याकुल है।
Tuesday, September 14, 2010
यादें
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
इक बरफ़ीली सुबह का पाला,
नखलऊ की कम्बल ओढ़े है,
कुछ बेगम महल की यादें हैं,
औ कालेज के आंसू थोड़े हैं।
माँ से यूँ हंस कर शरमाना,
और प्यार का पहला लाल गुलाब,
छत पर जाके फ़ोन पे लड़ना,
दिखलाना शादी के ख्वाब।
चारबाग की चाय प्याली,
कैफ़े की काफ़ी भर याद,
झप्पी ट्रेन की खिड़की वाली,
ऐयरपोर्ट पर पहली रात।
मोबाइल पर नैन मटक्का,
जी मेल पर बीते रैन,
दो शहरों की प्रेम कहानी,
हर दम मिलने को बेचैन।
अब हो ब्याह तो बात बने,
ये मांग हमारी जारी है,
हमसे चबवाये लौह चने,
अब हालत भी बेचारी है।
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
इक बरफ़ीली सुबह का पाला,
नखलऊ की कम्बल ओढ़े है,
कुछ बेगम महल की यादें हैं,
औ कालेज के आंसू थोड़े हैं।
माँ से यूँ हंस कर शरमाना,
और प्यार का पहला लाल गुलाब,
छत पर जाके फ़ोन पे लड़ना,
दिखलाना शादी के ख्वाब।
चारबाग की चाय प्याली,
कैफ़े की काफ़ी भर याद,
झप्पी ट्रेन की खिड़की वाली,
ऐयरपोर्ट पर पहली रात।
मोबाइल पर नैन मटक्का,
जी मेल पर बीते रैन,
दो शहरों की प्रेम कहानी,
हर दम मिलने को बेचैन।
अब हो ब्याह तो बात बने,
ये मांग हमारी जारी है,
हमसे चबवाये लौह चने,
अब हालत भी बेचारी है।
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।
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इसे लिख कर मज़ा आ गया..........
Saturday, September 11, 2010
बारिश
इस बार जाने बादलों में क्या होड़ लगी है,
बेइन्तेहां बरसते हैं,
मसरूफ़ियत की भी हद है भाई,
कहीं मन भी गीला नहीं हुआ,
और कहते हैं सूरत में तो बाढ़ ही आ गयी,
एक तो ये मौसम है,
और एक तुम हो,
एक अरसा हुआ सुने हुए,
एक झलक भी मयस्सर ना हुई तुम्हारी,
बस एक तस्वीर के सहारे,
सांस ले रहा हूं आज भी,
एक बार बाढ़ ही आ जाती तो क्या बात थी ........
Thursday, September 2, 2010
रात
ऐसा जान पड़ता था,
अब मन समझदार हो गया है शायद,
पर मारा है दस्तूर-ए-मोहब्ब्त का शायद,
गाहे बगाहे,
कई रातों को,
कोठरी में मेरी,
दरीचे के धुंधले कांच पे,
ओस गिर ही जाती है ।
वाह रे मालिक,
कभी एक रात खिसकती नहीं,
कभी उम्र शब में गुज़र जाती है ।
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..................बस लिख दिया
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