Thursday, August 19, 2010

ये शहर

ये शहर,
ये सड़क,
वो लोग,
वो मकान,
और रस्ते का वो पेड़,
कुछ भी नहीं बदला,

मेरी गाड़ी कि पहियों के निशान अभी भी हैं,
उन बीते दिनों का असर अभी भी सुर्ख ही है,
कल मैं शाम के साथ टहलने गया था,
अपनी कुछ पुरानी चीज़ें ढूंढने गया था,
काका की मीठी चाय,
और मन्दिर की वो बेन्च समेटने गया था,

एक पत्ते पे लिख कर नाम अपना,
उड़ा दिया सड़क पर बस यूं ही,
और समा गया इस शहर के ज़ेहन में,
इस खानाबदोश महौल में,
पता ही नहीं चला,
कब ये शहर घरोंदा हो गया था।


तब तक,
वो ऊपर वाली शाख अनायास ही,
पूछ बैठी,
'कहो यार! आज अकेले ही आये हो?'
और बस,
सब कुछ धीरे धीरे बदल गया जैसे,
जवाब में मैं धीरे से मुस्कुरा दिया,
कहा 'चलता हूँ अब, देर हो रही है'

वो शाख समझदार है,
'गुड लक' कहा मुझको,
कहा .....................................'फ़िर आना'


4 comments:

  1. wah ji bahut acchi n sarthaak kavita

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  3. chhoo gaye bandhu.....andar tak dil ko ahsas kar gaye......!!

    behtareen...

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  4. Hum samajh nahin paa rahe hain, ki likhein kya. Bass chup rehna chaahte hain kuchh der. Meri samajh se yeh hi kaafi hoga.

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