Friday, July 20, 2007

चंद हर्फ़

उजले कागज़ पर रंगीन स्याही से,
चंद हर्फ़ उकेर लिये हमने,

बगैर ऐ मुहिब! तुम्हारी इजाज़त के,
कुछ हसीन लम्हे फ़िर से जी लिये हमने।

आओ इन अल्फ़ाज़ों से तुम्हें मिलवाता हूँ,
ये सब भी तुम्हारी तरह मेरे अपने हैं,
चलो तुम्हारा इनसे तार्रुफ़ करवाता हूं।
इनमे मेरे वो जज़्बात बयां हैं,
जो कभी तुमसे छिपा लिये थे हमने।

उजले कागज़ पर रंगीन स्याही से,
चंद हर्फ़ उकेर लिये हमने,

ये मेरी कागज़ पे बिखरी जवानी को समेटे हैं,
पर रुसवाई के दस्तूर से नावाकिफ़ ये भी नहीं,
इसीलिये तुम्हारी आरज़ू की कवायदें नामज़द हैं इनमे,
मगर इन लकीरों में दम तोड़ता ये मेरा इज़हार नहीं,
अपने मुहाफ़िज़ की इनायतें लिख दी हैं हमने।

बगैर ऐ मुहिब! तुम्हारी इजाज़त के,
कुछ हसीन लम्हे फ़िर से जी लिये हमने।

आज हमें ज़िन्दगी से कोई गिला नहीं,
क्योंकि अपनी नज़दीकियों के इकरारनामे पर,
ये शायराना दस्तखत कर लिये हमने।

13th september 2001
one of my earliest flings with urdu..........

1 comment:

  1. amit no words for it .....
    i wish i wud have read it earlier such that the few words that supposedly had becum important wud have never come into picture....

    love u even more....:)

    ReplyDelete