Wednesday, March 24, 2010

इन्तेज़ार

यूँ तो कई रातें,
आपके इन्तेज़ार की छड़ी के सहारे,
इन्ही चार दीवारों के दरम्यान,
अन्धेरों को टटोलते टटोलते गुज़ार दी है हमनें,
पर आज की ये रात,
बिछोने पर पड़ी सिलवटों के बीच गिरे,
कुछ मेरे ख्वाब ज़िन्दा हो गये हैं,
आज की ये रात कमबख्त खिसकती ही नहीं है,

मेरी हर सांस फ़ेफ़ड़ों से गले तक आते आते,
अपनी आंच से मेरे आंसुओं को,
बिखरने से पहले ही धुआं किये दे रही है।
और धुएं के ये छोटे छोटे बादल,
इसी नुकीली हवा में रुइ के फ़ाहों के मानिन्द,
इधर उधर बहक रहे हैं,

मेरे जले हुए आंसुओं की ओस के मोतियों के ज़ेवर पहन कर,
कल ज़र्रा ज़र्रा सूरज की रोशनी में इतरा उठेगा,
और तब,

मेरी सांस की तपन,
खिड़की के इस धुन्धले कांच पर,
मेरे जले हुए आंसुओं के धुएं से,

कल आने वाली रात का इन्तेज़ार फ़िर से लिख देगी,
के आज की ये रात तो कम्बखत खिसकती ही नहीं........

1 comment:

  1. Zabardast... Koi aur shabd mila hi nahin iske aage...

    No wonder you posted it under the label "One of my all time favourites"

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