Thursday, September 2, 2010

रात

ऐसा जान पड़ता था,
अब मन समझदार हो गया है शायद,
पर मारा है दस्तूर-ए-मोहब्ब्त का शायद,
गाहे बगाहे,
कई रातों को,
कोठरी में मेरी,
दरीचे के धुंधले कांच पे,
ओस गिर ही जाती है ।
वाह रे मालिक,
कभी एक रात खिसकती नहीं,
कभी उम्र शब में गुज़र जाती है ।

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