Saturday, October 30, 2010

घर

प्यार की ईंट,
वादों का सीमेन्ट,
ख्वाबों के खिड़की ,
और कसमों की चौखट,

तुम्हारी रसोई,
मेरी छत,
तुम्हारा आंगन,
और 'हमारा' बरामदा..

अपने सपनों का महल,
आजकल अकेले ही निहारता हूँ,
पुरानी बातों की धूल, 
खुद ही बहारता हूँ, 
कभी सुफ़ैद उम्र का सहारा देखता हूँ,
कभी नन्हों की किलकारी सोचता हूँ,
पकड़ के हाथ तुम्हारा,
शाम की वो सैर सोचता हूँ,

इन सारी बातों की झांकी,
हर रोज़ दिखाई देती है, 
किरदार भी सब दिखते हैं,
पर जब मैं पलट के, 
मारे खुशी के बदहवास,   
'उसका' पहला कदम दिखाने को,
देता हूँ आवाज़  तुमको, 

तब इन दीवारों से टकरा कर,
एक दम तोड़ता सन्नाटा सुनाई देता है, 
ये घरोंदा,
बिन तुम्हारे कदमों के,
आज भी निस्पन्द खड़ा है,
हर रोज़ रात को,
सपने में मेरे,
दुलहन की माफ़िक सजता है,
होते ही सुबह,
कारवां उठ चुका होता है,

ऐसी है कहानी,
इस बेचारे घर की,
जो सिर्फ़ इन्तेज़ार कर सकता है,
जान तो कभी आयी ही नहीं,
कमबख्त मर भी नहीं सकता है.

No comments:

Post a Comment