Tuesday, October 26, 2010

रात और शाम

कान्धे पे लेके तेरी फ़ुरकत का बोझा,
दबे पांव ड्योढ़ी को लांघ कर,
अपने कमरे में घुसा,
दबे पांव इसलिये,
के कल की सोयी हुई शाम उठ ना जाये कहीं,
बहुत चुभती है सीने में,
.......वो कल की शाम।

पर इतनी कच्ची नींद सोयी थी,
कि मेरी धड़कन की आहट से ही उठ गयी,
और बस,
इतना सताया कि आँख नम हो आयी,

साँस छोड़ कर गहरी सी,
भारी कदमों से,
बैग रखते हुए,
गुज़रा आईने के सामने से,
तो देखा,
तेरे माथे की बिन्दिया चिपकी थी वहीं,
नीलम सी चटख नीली,

और 'उस रात' ने आकर थाम लिया कुछ यूँ हाथ मेरा,
के टपकने से ठीक पहले मेरे अश्कों के माने बदल गये,
होंठ खुद ही मुसकुरा दिये,
रूठ के वो शाम फ़िर औंधे मुंह सो गयी,
और रात भर बहुत बातें की 'उस रात' से मैनें,

अब तो बस उस रात और शाम के बीच झूलता है दिन,
कभी तेरा वो खत पढ़ता हूँ,
और कभी देखता हूँ आईना,
कभी खुद को कोसता हूँ
कभी खुदा को,

तुझसे तो कभी कोई शिकवा था ही नहीं,
बस वो शाम,
हर रोज़ मेरे बिस्तर पे सोयी मिलती है,
और हर बार वो आईना मुझे देखता है......

1 comment:

  1. अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

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