Wednesday, October 27, 2010

आज भी

गूंजती है हँसी तुम्हारी इस घर में आज भी,
वो पुराने शहर वाली पाज़ेब खनकती है आज भी,

तुम्हारी शाल की गर्माहट मुझे सुलाती है आज भी,
नम है माथा तुम्हारे बोसे से आज भी,

भोर में अलसाई आँखें तुम्हें खोजती हैं आज भी,
याद करके यकायक मुस्कुरा देता हूँ आज भी,

वो तुम्हारा काजल लगाना याद आता है आज भी,
यूँ अदा से सर झुका के रिझाना सताता है आज भी,


कलेवा पे भाग के मिलना याद है आज भी,
अधूरे घर की छत पे बैठ प्यार जताना याद है आज भी,

तुम्हारे पत्तों कि निशां फ़र्श पे हैं आज भी,
तुम्हारे झूले वाली बालकनी मुन्तज़िर है आज भी,

कुछ फ़ासले हो गयें हैं शायद पर साथ छूटा नहीं है आज भी,
मोहब्बत है तुमको भी मैं जानता हूँ आज भी,

अकेले में बैठ मुझे याद करती होगी आज भी,
महसूस कर मेरे छुअन का अहसास लजाती होगी आज भी,

आती हो मेरे ख्वाबों में रोज़ तुम आज भी,
मेरे जीने का मकसद बताती हो आज भी,

कभी तो मेहरबाँ होगी ये ज़ीस्त मुझ पर,
एक पल में हज़ार मौतें मैं मरता हूँ आज भी......

No comments:

Post a Comment