Thursday, October 28, 2010

एक रात

एक रात को स्टेशन पे खड़ा एक शख्श,
बुझे कदमों से वापस हो चला घर की ओर,
बा-उम्मीद कई दिनों से,
बस इन्तेज़ार ही करता था बरबस,

लखनऊ मेल में जा रही थी मन्ज़िल उसकी,
दो चार कदम ही बढ़े थे बस,
कि एक सन्देसा आया,
और मानो गाड़ी वापस हो चली जैसे,

उस शोर-गुल और भीड़ में भी,
मौसिकी का आलम सा हो गया था,
इतनी ज़ोर से धड़का उसका दिल,
कि सुन सकते थे सब लोग धड़कन उसकी,

9 दिसम्बर की उस सर्द रात में,
मन का सावन कुछ यों झूम के बरसा,
सारी कायनात उजली हो गयी जैसे,
स्टेशन से घर का रस्ता बहुत खूबसूरत हो गया था जैसे,

रस्ते भर वो मन्ज़िल उसके साथ थी,
गाड़ी पर पीछे बैठे हुए,
रख कर उसके कंधे पे हाथ मानो,
उसके कानोँ में बार बार फ़ुसफ़ुसा रही हो जैसे,

....कि मैं तुम्हारी हूँ......सिर्फ़ तुम्हारी
.

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