ये सभी रचनाएं मेरे अत्यंत करीब हैं, कलम से कल्पना नही सीख पाया हूँ अभी, जो कुछ भी लिखा है, सब आप बीती ही है,
Saturday, September 11, 2010
बारिश
Thursday, September 2, 2010
रात
Tuesday, August 31, 2010
......
Thursday, August 19, 2010
ये शहर
Tuesday, July 13, 2010
अन्तरद्व्ंद
Tuesday, June 1, 2010
Friday, May 21, 2010
पोटली
Wednesday, May 19, 2010
ख्वाब
Saturday, March 27, 2010
पंकज
Wednesday, March 24, 2010
कल सारी रात
इन्तेज़ार
Thursday, July 2, 2009
मेरे साथ भी कोई रहता है……
परछाइं बनके चल देती,
किताबों के पन्नो से फ़िसलती,
आपकी तस्वीरों से गिरती,
कभी सर-ए-शाम नुक्कड पे
हँस देती……
यूं ही सडक पे घूमती…
छत पे,
मुन्डेर पे ,
चौखट पे यकायक,
उडती ही फ़िरती बस,
अभी देखो…
बस अभी,
मेरे कांन्धे से सट के गुज़री है,
कुछ जानी देखी सूरत है,
अब मेरे साथ ही चलती है,
हर रात कहानी बुनती है,
हाथ पकड़ कर घड़ियों का,
घन्टों बातें करती है,
आंखों में गीली मिसरी है,
कुछ यादें भूली बिसरी हैं,
इस कागज़ पे बिखरी हैं,
हर लम्हा बस कहता है,
मेरे साथ भी कोई रहता है,
गम के आंसू पीकर वो,
मेरे पास सिसकता कहता है,
मेरे साथ भी कोई रहता है……
Saturday, June 20, 2009
मिसरे की स्याही
कुछ इत्तेफ़ाकन लिखे,
पर बाखुदा,
बामोहब्बत लिखे।
अब इन नज़्मों के झरोंखों से,
तुमको देखा करता हूं,
हर इक नज़्म पलटता हूं,
हर बार मैं तुमको पढता हूं ।
इक फ़ूल सहेज के रखा है,
कुछ पन्नों के सीने में,
फ़ुरकत के कुछ पत्ते हैं,
और चांदी का एक सिक्का है।
इस बार कहीं इक पन्ने पर,
उस सुर्ख गुलाबी गुन्चे पर,
मेरे मिसरे की स्याही उतर गयी,
इक दाग है उसपे रत्ती भर। ।
मैं अब नज़्म अधूरी पढता हूं,
हर बार मैं तुमपे मरता हूँ,
और कागज़ के इस रिश्ते को,
मैं झुक कर सजदा करता हूं ।
Monday, March 9, 2009
तुम
तुम्हारी आमद से ज़र्रा ज़र्रा मुक़द्दस हो गया हो जैसे,
मेरी मुंतज़र दहलीज़ पर तुम्हारे कदम क्या पड़े,
आँगन रोशन हो गया हो जैसे ।
तुम्हारी नज़रों में अपना अक्स देख कर यूँ इतराता है,
ये मन तुम्हारी अलख में बावरा हो गया हो जैसे,
सदियों के जैसे वो दिन गुज़र रहे थे पर,
थाम कर हाथ तुम्हारा,
ये वक़्त अब तेज़ रफ़्तार हो चला जैसे ।
तो इस वक़्त पे थोड़ी लगाम हो,
ज़ालिम बहुत फ़िक़रे कसता है,
हर बात पे ज़ोरी करता है,
अबकी सावन में जो तुम भी आ जाती,
तो इस बार बरस ही जाता पानी।
Saturday, February 28, 2009
रेत के ख्वाब
आंखों की रेत में खुद को देखा
वो रेत कहीं मेरी मुट्ठी फ़िसल ना जाए,
इसलिए आज कल ख्वाबों पे बन्दिश सी लगा रखी है।