Wednesday, November 17, 2010

नवम्बर के महीने में,
ये मुसलसल बरसात,
लगता है खुदा की भी माशूक,
आयी है लौट कर  दूर से कहीं,

तभी आज चाँद भी कुछ बड़ा नज़र आता है,
थोड़ा और करीब आ गया हो मानो,
जी करता है बस बढ़ा के हाथ,
भर लूँ ओक में उसको,

कहीं फ़िर सुबह ना हो जाये.........

Wednesday, November 10, 2010

अंधेरे की आदत

अंधेरे की आदत पड़ती नहीं,
और उजाले की आस,
ठोड़ी टिकाए बैठी है,

तेरे नाम का दिया जलाये,
सहर की ओर पीठ करके,
मुटठी भर लम्हे लिये बैठा हूँ,

एक ज़ंजीर सी पड़ी है पैरों में,
ना चल ही सकता हूँ,
और बैठने की तकलीफ़ बरदाश्त नही होती

Monday, November 1, 2010

किस ओर जा रही है ये ज़िन्दगी ऐ खुदा,
है इस क्या इस दर्द का हिसाब तू बता,
कहते हैं बस एक सफ़र इसको,
तो फ़िर है क्या मेरी मन्ज़िल ये बता,
अगर ये सब नाते झूठे ही हैं,
तो मैं मानूं क्यों तुझे भी ये बता

Saturday, October 30, 2010

घर

प्यार की ईंट,
वादों का सीमेन्ट,
ख्वाबों के खिड़की ,
और कसमों की चौखट,

तुम्हारी रसोई,
मेरी छत,
तुम्हारा आंगन,
और 'हमारा' बरामदा..

अपने सपनों का महल,
आजकल अकेले ही निहारता हूँ,
पुरानी बातों की धूल, 
खुद ही बहारता हूँ, 
कभी सुफ़ैद उम्र का सहारा देखता हूँ,
कभी नन्हों की किलकारी सोचता हूँ,
पकड़ के हाथ तुम्हारा,
शाम की वो सैर सोचता हूँ,

इन सारी बातों की झांकी,
हर रोज़ दिखाई देती है, 
किरदार भी सब दिखते हैं,
पर जब मैं पलट के, 
मारे खुशी के बदहवास,   
'उसका' पहला कदम दिखाने को,
देता हूँ आवाज़  तुमको, 

तब इन दीवारों से टकरा कर,
एक दम तोड़ता सन्नाटा सुनाई देता है, 
ये घरोंदा,
बिन तुम्हारे कदमों के,
आज भी निस्पन्द खड़ा है,
हर रोज़ रात को,
सपने में मेरे,
दुलहन की माफ़िक सजता है,
होते ही सुबह,
कारवां उठ चुका होता है,

ऐसी है कहानी,
इस बेचारे घर की,
जो सिर्फ़ इन्तेज़ार कर सकता है,
जान तो कभी आयी ही नहीं,
कमबख्त मर भी नहीं सकता है.

Thursday, October 28, 2010

एक रात

एक रात को स्टेशन पे खड़ा एक शख्श,
बुझे कदमों से वापस हो चला घर की ओर,
बा-उम्मीद कई दिनों से,
बस इन्तेज़ार ही करता था बरबस,

लखनऊ मेल में जा रही थी मन्ज़िल उसकी,
दो चार कदम ही बढ़े थे बस,
कि एक सन्देसा आया,
और मानो गाड़ी वापस हो चली जैसे,

उस शोर-गुल और भीड़ में भी,
मौसिकी का आलम सा हो गया था,
इतनी ज़ोर से धड़का उसका दिल,
कि सुन सकते थे सब लोग धड़कन उसकी,

9 दिसम्बर की उस सर्द रात में,
मन का सावन कुछ यों झूम के बरसा,
सारी कायनात उजली हो गयी जैसे,
स्टेशन से घर का रस्ता बहुत खूबसूरत हो गया था जैसे,

रस्ते भर वो मन्ज़िल उसके साथ थी,
गाड़ी पर पीछे बैठे हुए,
रख कर उसके कंधे पे हाथ मानो,
उसके कानोँ में बार बार फ़ुसफ़ुसा रही हो जैसे,

....कि मैं तुम्हारी हूँ......सिर्फ़ तुम्हारी
.

Wednesday, October 27, 2010

आज भी

गूंजती है हँसी तुम्हारी इस घर में आज भी,
वो पुराने शहर वाली पाज़ेब खनकती है आज भी,

तुम्हारी शाल की गर्माहट मुझे सुलाती है आज भी,
नम है माथा तुम्हारे बोसे से आज भी,

भोर में अलसाई आँखें तुम्हें खोजती हैं आज भी,
याद करके यकायक मुस्कुरा देता हूँ आज भी,

वो तुम्हारा काजल लगाना याद आता है आज भी,
यूँ अदा से सर झुका के रिझाना सताता है आज भी,


कलेवा पे भाग के मिलना याद है आज भी,
अधूरे घर की छत पे बैठ प्यार जताना याद है आज भी,

तुम्हारे पत्तों कि निशां फ़र्श पे हैं आज भी,
तुम्हारे झूले वाली बालकनी मुन्तज़िर है आज भी,

कुछ फ़ासले हो गयें हैं शायद पर साथ छूटा नहीं है आज भी,
मोहब्बत है तुमको भी मैं जानता हूँ आज भी,

अकेले में बैठ मुझे याद करती होगी आज भी,
महसूस कर मेरे छुअन का अहसास लजाती होगी आज भी,

आती हो मेरे ख्वाबों में रोज़ तुम आज भी,
मेरे जीने का मकसद बताती हो आज भी,

कभी तो मेहरबाँ होगी ये ज़ीस्त मुझ पर,
एक पल में हज़ार मौतें मैं मरता हूँ आज भी......

Tuesday, October 26, 2010

रात और शाम

कान्धे पे लेके तेरी फ़ुरकत का बोझा,
दबे पांव ड्योढ़ी को लांघ कर,
अपने कमरे में घुसा,
दबे पांव इसलिये,
के कल की सोयी हुई शाम उठ ना जाये कहीं,
बहुत चुभती है सीने में,
.......वो कल की शाम।

पर इतनी कच्ची नींद सोयी थी,
कि मेरी धड़कन की आहट से ही उठ गयी,
और बस,
इतना सताया कि आँख नम हो आयी,

साँस छोड़ कर गहरी सी,
भारी कदमों से,
बैग रखते हुए,
गुज़रा आईने के सामने से,
तो देखा,
तेरे माथे की बिन्दिया चिपकी थी वहीं,
नीलम सी चटख नीली,

और 'उस रात' ने आकर थाम लिया कुछ यूँ हाथ मेरा,
के टपकने से ठीक पहले मेरे अश्कों के माने बदल गये,
होंठ खुद ही मुसकुरा दिये,
रूठ के वो शाम फ़िर औंधे मुंह सो गयी,
और रात भर बहुत बातें की 'उस रात' से मैनें,

अब तो बस उस रात और शाम के बीच झूलता है दिन,
कभी तेरा वो खत पढ़ता हूँ,
और कभी देखता हूँ आईना,
कभी खुद को कोसता हूँ
कभी खुदा को,

तुझसे तो कभी कोई शिकवा था ही नहीं,
बस वो शाम,
हर रोज़ मेरे बिस्तर पे सोयी मिलती है,
और हर बार वो आईना मुझे देखता है......

Monday, October 18, 2010

चिराग

उतरा जो इश्क का भूत तो लुटा कारवां देखो,
एक बुझे हुए आशिक की कब्र पे ये जलता हुआ चिराग देखो,
कहते हैं कोई दीवानी आके जला जाती है,
देखा नहीं आज तक किसी ने,
बड़ी रूहानी दीवानी है ?

अरे मूरख उठा के देख ज़रा नज़रें,
तेरी कब्र पे कोइ नहीं रोता है,
कम स कम एहसान तो मान उस बन्जारे का,
जो वहां सोता है,
उसकी सुलगती चिलम से थोड़ी रोशनी तो हो जाती है,
 
मुगालता ही सही,
मरने के बाद ही सही,
पर दुनिया तेरी मोहब्बत का नाम तो लेती है,
और क्या चाहता था तू सच्ची आशिकी से ?
 ..............जो ये झूठी रोशनी नहीं दे पाती है ?

Monday, October 11, 2010

याद है


एक रोज़ कहीं जाने के लिये तैयार थीं तुम, 
और तभी मेरी कमीज़ का एक बटन टूट गया, 
याद नहीं उस कमीज़ का रंग भी मुझको,
पर उस टाँकें का निशान वहीं मेरे सीने पे ही छूट गया।  

Thursday, September 30, 2010

अभी बाकी है

कई खुदा हैं मेरे,
पर कलमा तेरे नाम का अभी बाकी है,

इस बेफ़िक्री को ना सोचना मेरी बेवफ़ाई तुम,
बस समझ लो यूँ कि इन्तेहाँ अभी बाकी है,

सफ़ा जो पलट दिया तो हुई क्या बात ज़ालिम,  
दास्तां-ए-मोहब्बत अभी बाकी है,

अमां हुई खतम बस स्याही है,
मेरी उन्गलियों में कुछ नज़्में अभी बाकी हैं,

बस मौजूं नहीं मिलता आज की रात कोई,
अन्दाज़-ए-बयां  तो अभी बाकी है।

Saturday, September 25, 2010

शिकायत

शिकायत है मुझे,
तुम्हारे ज़ुल्फ़ों में लगी,
उस नादान क्लिप से।

क्या तकदीर है हुज़ूर की,
जा बैठी है मेरे खुदा के माथे पर,
और उसपे अदा भी ऐसी,
खुद अपने ही हाथों से जो लगायी है तुमने।        

यूं तो मेरी कोई खास रंज़िश नहीं है उससे,
पर रोज़ सवेरे जब तुम,
गुज़रती हो उस गुलमोहर के दरख्त के नीचे से,
और उड़ती हैं हौले से यूँ ज़ुल्फ़ें तुम्हारी,
एक हवा के झोंके से।

तुम्हारे रुखसारों पर,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का वो लम्स्
मैं महसूस कर पाता हूँ आज भी।

अरमां बहुत हैं मेरे भी,
के बढ़ा के हाथ रोक लूँ उन ज़ुल्फ़ों को,
के छू ना पायें तुम्हारे नाज़ुक गालों को।

पर क्या करूँ,
ये नाचीज़ क्लिप,
साथ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के,
बांधे डालती है मेरे अरमानों को भी।

हाँ मुझे शिकायत है,
तुम्हारी उस नादान क्लिप से ............

बहुत पहले लिखी थी ये कविता हमने, लड़कपन के दिनों में, आह! क्या हसीं दिन थे वो भी। 
आज कुछेक बदलवों के साथ थोड़ी और सज गयी है। 

Tuesday, September 21, 2010

डोर

लगायी थी गिरह एक,
डोर के दो सिरे जोड़ने के लिये,
पर जुड़ तो कुछ भी ना सका,
ऐंठ के रह गये दोनो,
अलबत्ता ये गिरह बहुत खटकेगी अब ।
शायद दो टुकड़ों का ही मुकद्दर था डोर का,
मैं ही चला था खुदा बनने।

Saturday, September 18, 2010

तस्वीर



तुम्हारी एक तस्वीर देख के मन योँ इतराया,
के बस उड़ता-उड़ता फ़िरता है। 

मुझसे पूछा धूमिल* की नज़रों ने,  
है तो इक तस्वीर ही बन्धु,
बात तो'उनकी'आमद की होती,    
ये कागज़ का इक टुकड़ा है। 

प्रेम कवि हो लेश* मान्यवर, 
ना मानो तो एक पुरज़ा है,  
जो मानो तो 'उनका' मुखड़ा है। 

मन सीली सी कुछ रातों में,
चाँद को तकते रहता था,    
'उनकी' इस तस्वीर की बाबत,
अब सपने देखा करता है।

मिलने की'उनसे'आस का सपना, 
'मिलन' से ज़्यादा मीठा है,  
जल का असली स्वाद तो बन्धु,
दो दिन का प्यासा कहता है।

सावन के आने से पहले,    
अकुल* मोर के मन से पूछो,
जब बादल ज़ोर गरजते हैं,  
तब 'उसका' मन क्या करता है।


है तो इक तस्वीर ही प्यारे,
ये मैं भी खूब समझता हूँ,
नहीं फ़ासलों की मोहताज  मोहब्बत, 
इस कागज़ पे ही मरता  हूँ।


*धूमिल : लवलेश मेरे एक परम् मित्र, सखा हैं, लेश जी जैसे 'उज्ज्वल ' कवि का उपनाम 'धूमिल' है, अब वो खुद ही जाने कि वो 'धूमिल' क्यों हैं, शायद श्री सुदामा पान्डेय 'धूमिल'जी के बड़े प्रशन्सक हैं।  
*अकुल : एक काव्यात्मक स्वच्छन्दता  का प्रतीक है, असल माने 'आकुल' या व्याकुल है। 

Tuesday, September 14, 2010

यादें

रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।  

इक बरफ़ीली सुबह का पाला,
नखलऊ की कम्बल ओढ़े है,
कुछ बेगम महल की यादें हैं,
औ कालेज के आंसू थोड़े हैं।

माँ से यूँ हंस कर शरमाना,
और प्यार का पहला लाल गुलाब,
छत पर जाके फ़ोन पे लड़ना,
दिखलाना शादी के ख्वाब।

चारबाग की चाय प्याली,
कैफ़े की काफ़ी भर याद,
झप्पी ट्रेन की खिड़की वाली,  
ऐयरपोर्ट पर पहली रात।

मोबाइल पर नैन मटक्का,
जी मेल पर बीते रैन,
दो शहरों की प्रेम कहानी,
हर दम मिलने को बेचैन।

अब हो ब्याह तो बात बने,
ये मांग हमारी जारी है,
हमसे चबवाये लौह चने,
अब हालत भी बेचारी है।
 
रंग तुम्हारी यादों के,
कुछ यूँ तासीर बदलते हैं
कभी दिल हमको बहलाता है,
कभी हम दिल को फ़ुसलाते हैं।

Saturday, September 11, 2010

बारिश

इस बार जाने बादलों में क्या होड़ लगी है,
बेइन्तेहां बरसते हैं,
मसरूफ़ियत की भी हद है भाई,
कहीं मन भी गीला नहीं हुआ,
और कहते हैं सूरत में तो बाढ़ ही आ गयी,

एक तो ये मौसम है,
और एक तुम हो,
एक अरसा हुआ सुने हुए,
एक झलक भी मयस्सर ना हुई तुम्हारी,

बस एक तस्वीर के सहारे,
सांस ले रहा हूं आज भी,
एक बार बाढ़ ही आ जाती तो क्या बात थी ........